भगवान् का भजन क्यों ज़रूरी है

हरे कृष्ण !!

श्री भगवान् कहते हैं-

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।

छः सौ सहस इकीस दम जावत हैं दिन रात।

एतो टोटो ताहि घर काहेकी कुसलात।।

इस भगवद्वचन के अनुसार हमें तुरन्त भगवद्जन में लग जाना चाहिये। अनित्य कहने का तात्पर्य यह है कि देर न करो, क्या पता है – दम आया न आया खबर क्या है?

यदि अभी श्वास बंद हो जाय तो फिर कुछ भी न हो सकेगा। विचारी हुई बातें सब वैसी-की-वैसी ही रह जायँगी। सब गुड़ गोबर हो जायगा, क्योंकि शरीर क्षणभंगुर है, यह एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता, प्रतिक्षण बड़ी तेजी से जा रहा है और जा रहा है उस मृत्यु की ओर जिसको कोई नहीं चाहता। वही मृत्यु प्रतिक्षण समीप आ रही है। प्रतिघंटा 900 श्वास जा रहे हैं, 24 घंटों में 21600 श्वास चले जाते हैं। जरा इस ओर ध्यान देना चाहिये। खर्च तो यह हो रहा है और कमाई क्या कर रहे हैं? किस बात की प्रसन्नता है?

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दूसरा पद कहा है-’असुखम्’ यानी यहाँ इस लोक में सुख नहीं है। यह लोक सुखरहित है। इतनी ही बात नहीं है, भगवान् तो कहते हैं-’दुःखालयमशाश्वतम्।‘ दुःखालय है; किन्तु हम तो इसमें ठीक इसके विपरीत सुख ढूँढ़ते हैं, यह कितने आश्चर्य की बात है। इस संसार में सुखकर वस्तुएँ मानी जाती हैं-धन, स्त्री, पुत्र, घर और भोग। इन सबमें विचार करके देखें तो वास्तव में सुख है ही नहीं, आदि-अन्त में सर्वत्र दुःख-ही-दुःख है।

यहाँ एक बात ध्यान देने की है कि हमें वही वस्तु सुख दे सकती है, जिसका हमारे पास अभाव है और हम जिसे चाह रहे हैं। उसके लिये चाहना जितनी ही बलवती होगी, उतना ही उस वस्तु के मिलने पर सुख अधिक होगा। अभाव रहते हुए भी यदि उसके अभाव का अनुभव नहीं है यानी उसके लिये छटपटाहट नहीं है तो वह वस्तु प्राप्त होकर भी हमें सुखी नहीं बना सकती।

अतः धन आदि पदार्थों से सुख प्राप्त करने के लिये पहले धन के अभाव का दुःख अत्यावश्यक है। यह तो हुआ वस्तु के होने से पहले होने वाला दुःख। फिर वे धनादि पदार्थ मनोरथ के अनुसार प्रायः मिलते नहीं यह हुआ दूसरा दुःख। मिल भी जायँ तो हमसे दूसरे को अधिक मिल जाते हैं तो वह एक नया दुःख खड़ा हो जाता है यह है तीसरा दुःख।

और मिलने पर उसके नाश की आशंका बनी ही रहती है, जो महान् चिन्ता का कारण है। यह हुआ चौथा दुःख। एवं होकर नष्ट हो जाने पर तो बहुत ही कष्ट भोगना पड़ता है। उस समय जो दुःख होता है, वह उसके अभाव के समय भी नहीं था। यह हुआ पाँचवाँ दुःख।

माया की मोहनी शक्ति से ही यह अनुभव होता है कि धनादि पदार्थों के इतने रूप में प्राप्त हो जाने पर हम बहुत सुखी हो जायँगे। ऐसी आशा और कथन तो हम सुनते आ रहे हैं; पर अभी तक ऐसा संसारी मनुष्य कोई नहीं मिला, जो यह कह दे कि हम पूर्ण सुखी हो गये हैं। प्रत्युत यह कहते तो प्रायः सभी देखे जाते हैं कि हम तो पहले से भी अधिक दुःखी हैं।

एक वस्तु के अभाव का अनुभव होने पर उसकी पूर्ति के लिये चेष्टा करते हैं, किंतु प्रायः उसकी सिद्धि होती नहीं; कहीं दैवसंयोग हो भी जाए तो फिर उसमें कई अन्य नये-नये अभावों की सृष्टि होने लगती है, जिनकी कि पहले कभी सम्भावना ही नहीं थी । इसीलिये श्री भगवान् ने कहा है –

विषय और इन्द्रियों के संबंध से होने वाले जितने भी सांसारिक सुख हैं, सब-के-सब ही दुःखयोनि यानी दुःखों की प्रसवभूमि-दुखों को पैदा करने वाली खानें हैं, एवं उत्पति और विनाश से संयुक्त हैं। अतः हे अर्जुन! बुद्धिमान-विवकी मनुष्य उनमें नहीं रमता। (5.22)

विचार करके देखा जाय तो किसी भी सांसारिक प्राणी को अपनी परिस्थिति में पूर्ण सुख और संतोष नहीं है; क्योंकि वह उससे भी और अधिक सुख के लिये सदा लालायित तथा प्रयत्नशील रहता है।

तीसरी बात कहते हैं कि ‘’इमं लोकं प्राप्य।‘ यहाँ ‘’इमं लोकम्’ इन पदों से संकेत है मनुष्य-शरीर की ओर; भगवान् कहते हैं कि इस मानव-शरीर को प्राप्त करके तो मेरा भजन ही करना चाहिये।

इस मानव-देह को प्राप्त करके तो केवल भगवद्जन ही करना चाहिये; क्योंकि दूसरे-दूसरे काम तो अन्यान्य शरीरों में भी हो सकते हैं, पर भजन का अवसर तो केवल इसी शरीर में है। देवादि शरीरों में तो भोगों की भरमार है तथा वहाँ अधिकार न होने से भी भजन कर नहीं सकते और नरकों में केवल पापों के फलों का भोग होता है, वहाँ नया कर्म करने का न अधिकार है और न उनको कर्तव्याकर्तव्यका ज्ञान ही है।

इसी प्रकार अन्य चौरासी लाख योनियों में भी कर्तव्याकर्तव्यका कुछ भी ज्ञान नहीं रहता तथा साधन-सामग्री नहीं है और अधिकार भी नहीं है। अधिकार, ज्ञान और सामग्री-ये तीनों केवल इस मानव-शरीर में ही हैं। कहीं-कहीं पशु-पक्षी आदि में भी भगवद्भक्ति आदि देखने में आती है तो वे अपवादस्वरूप ही हैं।

श्री तुलसी दास जी कहते हैं-

साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।

सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ। कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ।।

इस कथन पर हमें ध्यान देकर विचार करना चाहिये। जो मनुष्य-शरीर पाकर साधन नहीं करते, वे कहते हैं-‘यह कलियुग है। समय बड़ा बुरा है। इस समय चारों ओर पाप-ही-पाप का प्रचार हो रहा है; सत्य, अहिंसा आदि धर्मों का पालन तथा भगवद्जन हो ही नहीं सकता।

यह कलिकाल बड़ा विकराल युग है, सबकी बुद्धि अधर्म में लग रही है, क्या करें, समय की बलिहारी है। जब सब-का-सब वायुमण्डल ही बिगड़ा हुआ है, तब एक मनुष्य क्या कर सकता है। यदि हम समय के अनुसार न चलें तो निर्वाह होना कठिन है और धर्मके अनुसार न चलें तो पारमार्थिक साधन नहीं बन पाता।

किन्तु इस पर हमें विचार करना चाहिये, क्या हम सचमुच समय के अनुसार चलते हैं? कभी नहीं। जब शीतकाल आता है, तब गर्म कपड़े बनवाते हैं, आग आदि का यथोचित प्रबन्ध करते हैं, घर में कमरा बंद करके रहते हैं-क्या यह समय के प्रतिकूल चलना नहीं है?

ऐसे ही गर्मी के दिनों में ठंड़े जल आदि का प्रयोग करते हैं, गर्मी से बचने के लिये सतत सावधान रहते हैं और वर्षा में भी यथायोग्य उपायों से भी त्राण पाने की चेष्टा करते ही रहते हैं। अर्थात् सभी समय शरीर की प्रतिकूलता के निवारण, उससे रक्षा एवं शरीर के अनुकूल सामग्री जुटाने के लिये चेष्टा करते रहते हैं।

इसी प्रकार हमें कलिकाल से आध्यात्मिकता को बचाने की चेष्टा करनी चाहिये। जैसे शरीर की रक्षा न करने पर शरीर का नाश हो जाता है, ऐसे ही आध्यात्मिक जीवन की रक्षा न करने से उस लाभ से सर्वथा वंचित रहने के लिये बाध्य होना पड़ेगा।

करूणानिधि भगवान् ने कृपा करके श्रेष्ठ मनुष्य-शरीर दे दिया, परन्तु मूर्ख और कृतध्न मनुष्य ने उस शरीर को पहचाना नहीं’ प्रत्युत उसे यों ही मिट्टी में मिला दिया।

ऐसे अकारण कृपालु को यह कहकर कि क्या करें, भगवान् की मर्जी ही ऐसी है, वे ही सब कुछ कराते हैं तभी हम को संसारी बनाकर घर के काम-धंधों में फँसा दिया, कैसे भजन करें, भगवान् की मर्जी ही ऐसी है, वे कराते हैं तभी हम ऐसा करते हैं’ इत्यादि दोष देना मिथ्या है। तात्पर्य यह कि मनुष्य स्वयं तो उद्योग करता नहीं और दोषारोपण करता है दूसरों पर तथा आप रहना चाहता है निर्दोष।

अतः विवेकपूर्वक विचार करके अपनी वास्तविक उन्नति के लिये कटिबद्ध होकर तत्परता से खूब उत्साह के साथ लग जाना चाहिये।

भगवान् ने चौथी बात कही है-‘मां भजस्व।‘ मुझको भजो। अब विचारना यह है कि भगवान् का स्वरूप क्या है और उसका भजन क्या है। आजतक जैसा देखा, जैसा सुना और पढ़ा तथा उसके अनुसार भगवान् का साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण आदि जैसा स्वरूप समझा, वही है भगवान् का स्वरूप और इस प्रकार मुझको भजो।

अब विचारना यह है कि भगवान् का स्वरूप क्या है और उसका भजन क्या है। आजतक जैसा देखा, जैसा सुना और पढ़ा तथा उसके अनुसार भगवान् का साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण आदि जैसा स्वरूप समझा, वही है भगवान् का स्वरूप और इस प्रकार भगवान् के स्वरूप को सर्वोपरि तथा परम प्रापणीय समझकर एकमात्र उनके शरण हो जाना ही भजन है।

अर्थात् जिहृा से भगवान् के नाम का जप, मन से उनके स्वरूप का चिन्तन और बुद्धि से उनका निश्चय करना तथा शरीर से उनकी आज्ञाओं का पालन करना; एवं सब कुछ उन्हीं के समर्पण कर देना और उनके प्रत्येक विधान में परम संतुष्ट रहना-यह है भगवद्जन।

अब भगवद्जनरूप शरणागति के उक्त चारों प्रकारों का कुछ स्पष्टीकरण किया जाता है।

भगवान् के स्वरूप का चिन्तन करते हुए उनके परम पावन नाम का नित्य-निरन्तर निष्कामभाव से परम श्रद्धापूर्वक जप करना और उन्हीं भगवान् के गुण, प्रभाव, लीला आदि का मनन, चिन्तन, श्रवण और कथन करते रहना एवं चलते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते हर समय भगवान् की स्मृति रखना-यह शरण का पहला प्रकार है।

दूसरा प्रकार है-भगवान् की आज्ञाओं का पालन करना। इसमें केवल इस बात की और ध्यान देना है कि कहीं मन इन्द्रियों के और शरीर के कहने में आकर केवल उनकी अनुकूलता में ही न लग जाय; बल्कि यह विचार बना रहे कि भगवदाज्ञा क्या हैं? और वह कैसे प्राप्त हो? इसका उतर यह है कि एक तो श्रीमद्भागववगीता-जैसे ग्रन्थ भगवान् के श्रीमुख के वचन हैं ही।

दूसरे भगवत्पाप्त महापुरूषों के वचन भी भगवदाज्ञा ही हैं; क्योंकि जिस अन्तःकरण में स्वार्थ और अहंकार नहीं रहा, वहाँ केवल भगवान् की आज्ञा से ही स्फुरणा और चेष्टाएँ होती रहती हैं। तीसरे उन महापुरूषों के आचरण भी हमारे लिये आदर्श हैं; क्योंकि भगवान् ने कहा है-

श्रेष्ठ पुरूष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरूष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने  लग जाता है। (3.21)

चौथे, साधक के अपने राग-द्वेषरहित अन्तःकरण की स्फुरणा भी भगवदाज्ञा समझी जा सकती है। पाँचवें, कोई भी मनुष्य अपने स्वभाव के अनुकूल ही आज्ञा देता है, अतः उन परम दयालु प्रभु के स्वभाव को समझना चाहिये। श्री भगवान् जो भी आज्ञा देंगे अपने स्वभाव के अनुसार ही तो देंगे, और वे हैं सर्वसुहृद्।

इससे जिस कार्य में अपने स्वार्थ का त्याग और जीवमात्र का परम कल्याण हो, जिसमें किसी का भी अहित न हो, वह श्रीभगवान् की आज्ञा है। इस प्रकार उनकी आज्ञा का रहस्य समझकर उसके अनुकूल चलने में कभी कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये’ बल्कि उसी को अपना परम धर्म समझकर उसीके अनुसार चलने की प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये-‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः।

तीसरा प्रकार है-सर्वस्व प्रभु के समर्पण कर देना। वास्तव में तो सब कुछ है ही भगवान् का, क्योंकि न तो हम जन्म के समय कुछ साथ लाये और न जाते समय कुछ ले ही जायँगे; तथा न यहाँ रहते हुए भी किसी भी वस्तु तथा शरीरादिकों को हम अपने मनके अनुसार चला ही सकते हैं। इससे यह बात स्पष्ट समझ में आती है कि हमारा कुछ भी नहीं है, सब कुछ केवल भगवान् का ही है और उन्हीं के अधीन है। फिर भी हमने उन सब में भ्रम से जो अपनापन बना रखा है, उसे उठा लेना है।

चौथा प्रकार है-भगवान् के प्रत्येक विधान में परम प्रसन्न रहना। उसमें भी अनुकूलता में तो प्रसन्नता रहती ही है, प्रतिकूलता में वैसी नहीं रहती। वास्तव में तो अनुकूलता में जो प्रसन्नता रहती है, वह भगवद्विधान मानकर होने वाली प्रसन्नता नहीं है’ वह तो मोह के कारण है।

भाव यह कि अपने शरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण की अनुकूलता को लेकर जो प्रसन्नता होती है, वह मोहजनित है। उसे विवेक के द्वारा हटाकर भगवान् ने ही यह विधान किया है और यह मेरे लिये परम मंगलमय है’ इस प्रकार समझने पर जो प्रसन्नता होगी, वह भगवान के नाते होगी।

फिर प्रतिकूलता में भी दुःख की बात नहीं रह जायगी। इस प्रकार भगवान् का विधान मान लेने पर अनुकूल-प्रतिकूल सभी अवस्थाओं में भगवान् की स्मृति cuh रहेगी’ क्योंकि वह परिस्थिति भगवान् की ही बनायी हुई है, यह प्रत्यक्ष अनुभव होने पर फिर मनुष्य भगवान् को कैसे भूल सकेगा। ऐसा हो जाय, तभी यह समझा जा सकता है कि हमने सभी अवस्थाओं को भगवान् का विधान समझा है।

विचार कर देखने से मन, इन्द्रियाँ और शरीर की प्रतिकूल घटना में एक लाभ और है। अनुकूल घटना से पुण्य क्षीण होते हैं और प्रतिकूल घटना से पाप नष्ट होते हैं। तथा पापों का विनाश ही हमारे लिये हित है एवं पुण्यों का विनाश भी हमारे लिये हितकर है।

दूसरी बात यह है कि प्रतिकूलता में ही मनुष्य का विकास होता है, अनुकूलता में तो उन्नति की रूकावट होती है। अतः प्रभु जितनी ही प्रतिकूलता भेजते हैं, उतना ही वे हमारा परम हित कर रहे हैं। बच्चे के जब मैला लग जाता है और माँ उसे धोती है, तब बालक को उसका स्नान कराना बुरा लगता है।

वह रोता है, चिल्लाता है, किंतु माँ उसकी इच्छा की कोई परवा न करके उसे साफ कर ही देती है। ऐसे ही पापों का विनाश करने में प्रभु हमारी सलाह न लेकर, हमारे रोने और चिल्लाने की ओर कुछ भी ध्यान न देकर हमें शुद्ध कर ही देते हैं।

और जैसे सुनार जिस सोने को अपनाना चाहता है, उसको अधिक साफ करता है, वैसे ही प्रभु किसी भक्त को पूर्वपापों के अनुसार अधिक कष्ट देते हैं, उसे यह समझना चाहिये कि अब प्रभु मुझे अपना रहे हैं, क्योंकि वे प्रत्यक्ष ही मेरे पापों का विनाश कर रहे हैं। भगवान् ने स्वयं कहा है-

जिसपर मैं कृपा करता हूँ, धीरे-धीरे उसका समस्त धन हर लेता हूँ तथा उसके बन्धु-बान्धवों से वियोग कर देता हूँ, जिससे वह दुःखपूर्वक जीवन धारण करता है।

एक बात और विचारने की है, भगवान् जब हमारे मन की सुन लेते हैं अर्थात् हमारे अनुकूल परिस्थिति उत्पन्न कर देते है, तब हमें संकोच होना चाहिये कि कहीं भगवान् ने हमारा मन रखकर हमारे लिहाज से तो ऐसा नहीं कर दिया है।

यदि हमारा मन रखने के लिये किया है तो यह ठीक नहीं होगा’ क्योंकि मनचाहा करते-करते तो बहुत-से जन्म व्यतीत कर दिये, अब तो ऐसा नहीं होना चाहिये। अब तो वही हो, जो भगवान् चाहते हैं। बस, भक्त की यही चाह रहती है।

अतः वह भगवान् के विधानमात्र में परम प्रसन्न रहता है, फिर चाहे वह विधान मन, इन्द्रिय और शरीर के प्रतिकूल हो या अनुकूल। क्योंकि केवल प्रभु का विधान मानकर चलने पर तो अनुकूलता-प्रतिकूलता दोनों में परम मंगल-ही-मंगल भरा है। अतः वह अपना मनोरथ भगवान् से अलग नहीं रखता, भगवान् की चाह में ही अपनी चाह को मिला देता है।

इस प्रकार भगवान् का चिन्तन, भगवदाज्ञापालन, सब कुछ भगवान् के अर्पण कर देना और भगवद्विधान में परम प्रसन्न रहना ही भगवद्जन है।

अतएव हम सबको चाहिये कि बहुत शीघ्र भगवद्जन के ही परायण हो जायँ। ऐसे परायण हो जायँ कि भगवान् का भजन करते-करते वाणी गद्गद् हो जाय, चित्त द्रवित हो जाय, मन भगवान् में ही लग जाय, फिर भजन करना न पड़े, स्वाभाविक ही होने लग जाय। तभी भजन भजन है, नहीं तो नकली है।

जो भजन किया जाय, वह नकली होता है और जो स्वतः बनने लग जाय, वह असली होता है। न होने से तो भजन की नकल भी बड़ी अच्छी है, नकल भी आगे जाकर असली बन सकता है।

हरे कृष्ण !!